“कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ स्त्री अधिकार का घोषणा पत्र है। कृष्णा सोबती ने हिंदी लेखन या भारतीय लेखन में एक अलग पहचान बनाई है। पितृसत्ता का क्रिटिक रचते हुए परिवार की जनतांत्रिकता की चाहत उनके लेखन की मुख्य पहचान है। कृष्णा जी ने सामंतवाद के तत्व को जनतांत्रिकता प्रदान की; उन्होंने अपने लेखन में मर्दवादी मुहावरे की जगह वयस्कवादी मुहावरे को अपनाया।”
ये बातें श्री वीरेन्द्र यादव ने मंगलवार को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन एवं विकास केंद्र द्वारा कृष्णा सोबती की जन्मशती पर ‘स्त्री यथार्थ और स्त्री आख्यान : भारतीय उपन्यास और कृष्णा सोबती’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में समापन वक्तव्य देते हुए कहीं।
प्रो. अनिल राय ने कहा कि संगोष्ठी की सार्थकता इसमें है कि किसी रचनाकार के जन्मदिवस पर उसके सृजन सरोकार के साथ जीवन मूल्यों पर भी बात हो। उन्होंने जायसी की ‘पद्मावती’, दिनकर की ‘उर्वशी’ और महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़ियां’ के स्त्री पक्ष की, कृष्णा सोबती के स्त्री लेखन से तुलना करते हुए अपनी बात रखी। कृष्णा सोबती के अवज्ञाकारी रवैयों को मुखर रूप में लाने की आवश्यकता है। कृष्णा सोबती ने कमरे के अंदर की बातचीत को चौपाल में लाने का काम किया। 1967 ई. साहित्य में एक डिपार्चर है; कृष्णा सोबती निर्भीकता के साथ सत्ता से बहस करती हैं।

डॉ. वन्दना चौबे ने कहा कि भारतीयता और प्रतिरोध को समझने के लिए हमें उसके वर्ग, चरित्र को समझना जरूरी है। यौन संबंधों को समझने के लिए भी हमें उस वर्ग, राज्य चरित्र को समझना जरूरी है। जब तक घर के काम को संभालने वाली स्त्री मुक्त नहीं होगी तब तक हमारी मुक्ति संभव नहीं है।
जापान से आए वेद प्रकाश सिंह ने कहा कि जीवन में आप एक रंग के साथ नहीं चल सकते। कृष्णा सोबती स्त्री जीवन को संपूर्णता में देखने का प्रयास करती हैं इसलिए उनके उपन्यासों में एक रंग न दिखकर मिश्रित रंग दिखते हैं। उन्हें बोल्ड रचनाकार नहीं मानना चाहिए, क्योंकि उपन्यास में अपशब्दों के प्रयोग को लेकर वो सहज और सजग दोनों थीं।
डॉ. शशि भूषण मिश्र ने कहा कि पंजाबी लोक संस्कृति को समझने के लिए जिंदगीनामा उपन्यास अपने आप में एक मुकम्मल इतिहास है। कृष्णा सोबती ने जिंदगीनामा उपन्यास में विभिन्न पात्रों के माध्यम से सामंती मूल्यों का चित्रण किया है।
प्रियंका सोनकर ने अपनी बात रखते हुए कहा कि स्त्री लेखन तमाम पितृसत्तात्मक सरहदों को तोड़ देना चाहता है। स्त्री विमर्श पुरुष के खिलाफ नहीं है, पुरुष के प्रभुत्व के खिलाफ है। कृष्णा सोबती पारंपरिकता को चुनौती तो देती हैं लेकिन उनका त्याग नहीं करती। उनका उपन्यास ‘समय सरगम’ भारतीय संरचना का आख्यान है।
समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिव्या माथुर ने कहा कि स्त्री विमर्श में पुरुषों के भी हित को ध्यान में रखना चाहिए। प्रवासी लेखिकाओं में ज्यादातर ग्रहणी हैं उन्हें नौकरी करने का भी अधिकार नहीं है, इसलिए उनका लेखन और भी महत्त्वपूर्ण है। कृष्णा सोबती जी के उपन्यासों का शिल्प असाधारण है, उनके उपन्यास जीवन की जटिलताओं को उजागर करते हैं।
समापन सत्र का स्वागत वक्तव्य डॉ सुमिता चटर्जी ने दिया, संचालन प्रो. नीरज खरे ने किया। तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी की प्रतिवेदन रिपोर्ट प्रो प्रभाकर सिंह ने प्रस्तुत की।
इस सत्र में दिव्या माथुर, श्री वीरेंद्र यादव, प्रो. बलिराज पांडेय, प्रो. संजीव कुमार, राम जी राय, प्रो. मनोज कुमार सिंह, प्रो. अनिल राय, प्रो. डी. के. ओझा, प्रो. प्रभाकर सिंह, प्रो. नीरज खरे, डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी, डॉ. वंदना चौबे, डॉ. मिथिलेश शरण चौबे, डॉ. शशिभूषण मिश्र, डॉ. विंध्याचल यादव, डॉ. अवनीश मिश्र, डॉ. नीलेश कुमार, डॉ. सुशील कुमार सुमन, डॉ. मानवेंद्र प्रताप सिंह के साथ काफी संख्या में शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।