• एस०एम०एस०, वाराणसी में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का हुआ समापन
• बहुसंकट के मध्य सुख व कल्याण: भारतीय ज्ञान परम्परा से प्राप्त अंतरदृष्टि पर विद्वानों ने व्यक्त किये भारतीय ज्ञान केंद्रित विचार
• कॉन्फ्रेंस में देश-विदेश से आये लगभग 300 प्रतिभागियों ने प्रस्तुत किये शोध पत्र
वाराणसी, 2 मार्चः स्कूल ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज द्वारा आयोजित बहुसंकट के मध्य सुख व कल्याण: भारतीय ज्ञान परम्परा से प्राप्त अंतर्दृष्टि विषयक बारहवें अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का समापन हुआ। समापन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय, लखनऊ के पूर्व कुलपति प्रो. दुर्ग सिंह चौहान ने कहा कि भारतीय परंपरा में आनंद केवल क्षणिक प्रसन्नता नहीं, बल्कि आत्म-संतोष और आत्म-बोध का एक स्थायी भाव है। वेद, उपनिषद, भगवद गीता तथा बौद्ध और जैन दर्शन में वर्णित ज्ञान बताता है कि सच्चा कल्याण शरीर, मन और आत्मा के संतुलन में निहित है। महर्षि पातंजलि के योग सूत्र को उद्धृत करते हुए प्रो. चौहान ने कहा कि इससे हमें आत्म-अनुशासन, भावनात्मक स्थिरता और शारीरिक संतुलन की सीख मिलती है। ध्यान और प्राणायाम मानसिक स्पष्टता बढ़ाने और तनाव को कम करने में सहायक होते हैं। युवाओं में बढ़ते अवसाद व मानसिक बीमारियों के मद्देनजर भगवद्गीता के सूत्र को समाधान बताते हुए प्रो. चौहान के कहा कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को स्थितप्रज्ञ बनने की सलाह देते हैं—अर्थात, जीवन के उतार-चढ़ाव में मानसिक संतुलन बनाए रखना। निष्काम कर्म का सिद्धांत हमें यह सिखाता है कि हम फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करें। युवाओं से आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि योग, ध्यान, आयुर्वेद, भगवद गीता के सिद्धांत और आध्यात्मिक जीवनशैली को अपनाकर हम अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक भलाई सुनिश्चित कर सकते हैं।
समापन सत्र में बतौर विशिष्ट अतिथि उपस्थित प्रो. राजीव रंजन, पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विद्या विभाग, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय ने कहा कि भारतीय परंपराओं में संतोष (संतोषम् परम् सुखम्) को सर्वोच्च आनंद का स्रोत माना गया है। वैदिक युगीन भारत में प्रकृति पूजा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा प्रो रंजन ने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग के दौर में आज वैश्विक स्तर पर भारत सम्पूर्ण विश्व के लिए समाधान प्रस्तुत कर रहा है और इन समाधानों का मूल वैदिक साहित्य में निहित है। उन्होंने कहा कि आज जरूरत वापस से विस्मृत हुई सनातन ज्ञान परम्परा को सक्रीय स्मृति का अंग बनाने की है जिससे भारत पुनः विश्वगुरु की भूमिका में विश्व का मार्गदर्शन करे।
अतिथियों का स्वागत करते हुए संस्थान के निदेशक प्रो० पी० एन० झा ने नई शिक्षा नीति और भारतीय ज्ञान परम्परा के बीच समन्वय स्थापित करते हुए कहा कि नई शिक्षा नीति में प्राचीन भारतीय ज्ञान के वे सभी अवयव शामिल हैं जो बहुमुखी मानवीय विकास के लिए आवश्यक है। उन्होंने कहा कि वैसे तो नई शिक्षा नीति में बहुत से सकारात्मक पहलुओं को सम्मिलित किया गया है लेकिन भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देना इस नीति की सबसे प्रमुख विशेषता है। प्रो. झा ने कहा कि वास्तविक प्रसन्नता बाहरी स्थितियों पर नहीं, बल्कि आंतरिक विकास पर निर्भर करती है।
समापन सत्र का संचालन डॉ० भावना सिंह व धन्यवाद ज्ञापन कॉन्फ्रेंस के समन्वयक प्रो० अमिताभ पांडेय ने दिया। दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस की विस्तृत रिपोर्ट असोसिएट प्रोफेसर श्री अतिश खड़से ने प्रस्तुत की। अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के दूसरे दिन ग्यारह अलग अलग तकनीकी सत्रों का आयोजन भी हुआ जिसमें अमेरिका, कैनेडा, ओमान, बंगलादेश और नेपाल सहित देश के कोने-कोने से आये लगभग 300 प्रतिभागियों ने शोध-पत्र प्रस्तुत किया । इस अवसर एस०एम० एस० वाराणसी के अधिशासी सचिव डॉ० एम० पी० सिंह, निदेशक प्रो० पी० एन० झा, कुलसचिव श्री संजय गुप्ता, प्रो० संदीप सिंह, प्रो० राजकुमार सिंह, प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर सहित समस्त अध्यापक और कर्मचारी गण उपस्थित रहे ।